यात्रा वृत्तांत >> आखिरी चट्टान तक आखिरी चट्टान तकमोहन राकेश
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बहुआयामी रचनाकार मोहन राकेश का यात्रावृत्तान्त
यूँ ही भटकते हुए
एक भिखारिन, अपने बच्चे को छाती से सटाये, होठ उसके गाल पर रखे, अधमुँदी आँखों से फ़ुट-बोर्ड पर लटककर चलती गाड़ी से नीचे उतर गयी...।
गाड़ी आवली स्टेशन पर आकर रुक गयी।
आवली अर्णाकुलम् के पास ही है। किसी ने वहाँ की नदी के पानी की मुझसे बहुत प्रशंसा की थी। कहा था कि एक बार अवश्य मुझे वहाँ जाना चाहिए। मैं अपना सामान अर्णाकुलम् के होटल में छोड़कर वहाँ चला आया था।
प्लेटफ़ार्म पर उतरकर मैं रेल की पटरी के साथ-साथ चलने लगा। नदी तक जाने के लिए मझे यही रास्ता बताया गया था। फिर भी दो-एक जगह रुककर मुझे लोगों से पूछना पड़ा। जिस समय नदी के किनारे पहुँचा, एक मल्लाह पान जाने के लिए सवारियों को बुला रहा था। बिना यह सोचे कि पार जाकर क्या होगा, मैं नाव में बैठ गया।
पार पहुँचकर मैं किनारे के साथ-साथ चलने लगा। नदी में पानी ज्यादा नहीं था। किनारे के उथले पानी में कुछ जगह पशु नहा रहे थे। कुछ जगह पतली ईंटें नावों में भरी जा रही थीं। एक जगह घाट-सा बना था जहाँ कुछ लोग पानी में डुबकियाँ लगा रहे थे। सामने पुल था। पुल बहुत ऊँचा था, इसलिए उसके नीचे से गुज़रता नदी का पानी बहुत ख़ामोश और उदास नज़र आ रहा था।
मैं किनारे के साथ-साथ चलता हुआ पुल के ऊपर पहुँच गया। वहाँ से नीचे झाँकने पर वह पुल मुझे और भी ऊँचा लगा। बहाव के एक तरफ़ खुली ज़मीन पर धोबियों ने कपड़े सूखने के लिए फैला रखे थे। सबके सब कपड़े बिल्कुल सफ़ेद थे। उनकी बाँहें-टाँगें इस तरह फैली थीं कि लगता था वे कपड़े नहीं मनुष्य-शरीर के तरह-तरह के व्यंग्य-चित्र हैं जो स्कूल से लौटते बच्चों ने चाक के चूरे से बना दिये हैं। मैं मन-ही-मन उन बाँहों-टाँगों को नयी-नयी व्यवस्था देता कुछ देर वहाँ खड़ा अपना मनोरंजन करता रहा।
नदी का बहुत बड़ा कैनवस मेरे सामने था। उस हिलते-बदलते कैनवस में लोग नहा रहे थे, कपड़े धो रहे थे, नावों में ईंटें ले जा रहे थे। पुल की ऊँचाई से देखते हुए लगता था कि ज़िन्दगी का वह छोटा-सा टुकड़ा, नदी के पानी के साथ, उसी की ख़ामोशी और गति लिये, चुपचाप बहा जा रहा है। मेरा मन होने लगा कि कुछ देर के लिए मैं भी उस कैनवस पर उतर जाऊँ-घाट पर कपड़े रखकर नदी के कमर तक गहरे पानी में दो डुबकियाँ लगा लूँ। मैं पुल से नीचे चला गया और काफ़ी देर बच्चों की तरह घाट पर हाथ रखे उथले पानी में पैर चलाता रहा।
नहाकर निकला, तो मन हो रहा था किसी से बात करूँ। ठंडे पनी ने शरीर में स्फूर्ति ला दी थी। मैंने एक मल्लाह से बात करने की कोशिश की, मगर उसमें सफलता नहीं मिली। भाषा अलग-अलग होने से बात की शुरुआत ही नहीं हो पायी। अगर मुझे कोई ख़ास बात कहनी होती, तो इशारों से भी काम चल सकता था। मगर मेरी इच्छा उस पर मन का कोई भाव प्रकट करने की नहीं, मुँह से बोलकर कुछ कहने की थी। अपनी यात्रा में बहुत कम ऐसे अवसर आये थे जब मुझे अपना भाषा न जानना उस तरह अखरा हो। मगर उस समय इस बात से मन बहुत उदास हुआ कि मैं वहाँ अजनबी हूँ-इतने लोगों के बीच होकर भी अकेला हूँ। इस मजबूरी से कि मैं किसी से बात ही नहीं कर सकता, इतना भी नहीं कह सकता कि पानी बहुत ठंडा है, नहाकर मज़ा आ गया-मुझे दिनों के बाद घर से दूर होने की चुभन महसूस हुई।
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- प्रकाशकीय
- समर्पण
- वांडर लास्ट
- दिशाहीन दिशा
- अब्दुल जब्बार पठान
- नया आरम्भ
- रंग-ओ-बू
- पीछे की डोरियाँ
- मनुष्य की एक जाति
- लाइटर, बीड़ी और दार्शनिकता
- चलता जीवन
- वास्को से पंजिम तक
- सौ साल का गुलाम
- मूर्तियों का व्यापारी
- आगे की पंक्तियाँ
- बदलते रंगों में
- हुसैनी
- समुद्र-तट का होटल
- पंजाबी भाई
- मलबार
- बिखरे केन्द्र
- कॉफ़ी, इनसान और कुत्ते
- बस-यात्रा की साँझ
- सुरक्षित कोना
- भास्कर कुरुप
- यूँ ही भटकते हुए
- पानी के मोड़
- कोवलम्
- आख़िरी चट्टान